Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-5


प्रव

फागुन बीत रहा था। वैशाली में संध्या के दीये जल गए थे। नागरिक और राजपुरुष अपने-अपने वाहनों पर सवार घरों को लौट रहे थे। रंग-बिरंगे वस्त्र पहने बहुत-से स्त्री-पुरुष इधर से उधर आ-जा रहे थे। धीरे-धीरे यह चहल-पहल कम होने लगी और राजपथ पर अन्धकार बढ़ चला। नगर के दक्षिण प्रान्त में मद्य की एक दूकान थी। दूकान में दीया जल रहा था। उसके धीमे और पीले प्रकाश में बड़े-बड़े मद्यपात्र कांपते-से प्रतीत हो रहे थे। बूढ़ा दूकानदार बैठा ऊंघ रहा था। सड़कें अभी से सूनी हो चली थीं। अब कुछ असमृद्ध लोग ही इधर-उधर आ-जा रहे थे, जिनमें मछुए, कसाई, मांझी, नाई, कम्मकार आदि थे। वास्तव में इधर इन्हीं की बस्ती अधिक थी।

वृद्ध महानामन् बालिका की उंगली पकड़े एक दूकान के आगे आ खड़े हुए। वे बहुत थक गए थे और बालिका उनसे भी बहुत अधिक। महानामन् ने थकित किन्तु स्नेह-भरे स्वर में कहा—"अन्त में हम आ पहुंचे, बेटी!"

"क्या यही नगर है बाबा? कहां, वैसे कंचुक यहां-कहां बिकते हैं?"

"यह उपनगर है, नगर और आगे है। परन्तु आज रात हम यहीं कहीं विश्राम करेंगे। अब हमें चलना नहीं होगा। तुम तनिक यहीं बैठो, बेटी।"

यह कहकर वृद्ध महानामन् और आगे बढ़कर दूकान के सामने आ गए। महानामन् का कण्ठ-स्वर सुनकर बूढ़ा दूकानदार ऊंघ से चौंक उठा था, अब उसने उन्हें सामने खड़ा देखकर कहा—

"हां, हां, मेरी दूकान में सब-कुछ है, क्या चाहिए? कैसा पान करोगे—दाक्खा लाजा, गौड़ीय, माध्वीक, मैरेय?" फिर उसने घूरकर वृद्ध महानामन् को अन्धकार में देखा और उसे एक दीन भिक्षुक समझकर कहा—"किन्तु मित्र मैं उधार नहीं बेचता। दम्म या कहापण पास हों तो निकालो।" वृद्ध महानामन् ने एक कदम आगे बढ़कर कहा—"तुम्हारा कल्याण हो नागरिक, परन्तु मुझे पान नहीं, आश्रय चाहिए। मेरे साथ मेरी बेटी है, हम लोग दूर से चले आ रहे हैं, यहां कहीं निकट में विश्राम मिलेगा? मैं शुल्क दे सकूंगा।"

बूढ़े दूकानदार ने सन्देह से महानामन् को देखते हुए कहा—"शुल्क, तुम दे सकते हो, सो तो है, परन्तु भाई तुम हो कौन? जानते हो, वैशाली में बड़े-बड़े ठग और चोर-दस्यु नागरिक का वेश बनाकर आते हैं। वैशाली की सम्पदा ही ऐसी है भाई, मैं सब देखते-देखते बूढ़ा हुआ हूं।"

वह और भी कुछ कहना चाहता था, परन्तु इसी समय दो तरुण बातें करते-करते उसकी दूकान पर आ खड़े हुए। बूढ़े ने सावधान होकर दीपक के धुंधले प्रकाश में देखा, दोनों राजवर्गी पुरुष हैं, उनके वस्त्र और शस्त्र अंधेरे में भी चमक रहे थे।

बूढ़े ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा—"श्रीमानों को क्या चाहिए? गौड़ीय, माध्वीक, दाक्खा—?"

"अरे, पहले दस्यु की बात कह! कहां हैं दस्यु, बोल?" आगन्तुक में से एक तरुण ने अपना खड्ग हिलाते हुए कहा।

बूढ़े की घिग्घी बंध गई। उसने हाथ जोड़कर कहा—"दस्यु की बात कुछ नहीं श्रीमान् यह बूढ़ा ग्रामीण कहीं से आकर रात-भर के लिए विश्राम खोजता है। मुझे भय है, नहीं, नहीं, श्रीमान्, मैं कभी भय नहीं करता, किसी से भी नहीं, परन्तु मुझे सन्देह हुआ—कौन जाने, कौन है यह। महाराज, आप तो देखते ही हैं कि वैशाली का महावैभव यहां बड़े-बड़े दस्युओं को खींच लाता है...।"

"बक-बक मत कर बूढ़े।" उसी तरुण ने खड्ग चमकाते हुए कहा—"उन सब दस्युओं को मैं आज ही पकडूंगा। ला माध्वीक दे।"

दोनों आगन्तुक अब आसनों पर बैठ गए। बूढ़ा चुपचाप मद्य ढालने लगा। अब आगन्तुक ने महानामन् की ओर देखा, जो अभी चुपचाप अंधेरे में खड़े थे। अम्बपाली थककर घुटनों पर सिर रखकर सो गई थी। दीपक की पीत प्रभा उसके पीले मुख पर खेलती हुई काली अलकावलियों पर पड़ रही थी। तरुण आगन्तुक ने महानामन् को सिर से पैर तक देखा और फिर अम्बपाली पर जाकर उसकी दृष्टि स्थिर हो गई। उसने वृद्ध महानामन् से कहा—"बूढ़े, कहां से आ रहे हो?"

"दूर से।"

"साथ में यह कौन है?"

"मेरी बेटी है।"

"बेटी है? कहीं से उड़ा तो नहीं लाए हो? यहां वैशाली में ऐसी सुन्दर लड़कियों के खूब दाम उठते हैं। कहो बेचोगे?"

वृद्ध महानामन् बोले—"नहीं।" क्रोध से उनके नथुने फूल उठे और होंठ सम्पुटित हो गए। वह निश्चल खड़े रहे।

कहनेवाले ने वह सब नहीं देखा। उसके होठों पर एक हास्य नाच रहा था, दूसरा साथी माध्वीक पी रहा था। पात्र खाली करके अब वह बोला। उसने हंसकर साथी से कहा—"क्यों, ब्याह करोगे?"

दूसरा ठहाका मारकर हंसा। "नहीं, नहीं, मुझे एक दासी की आवश्यकता है। छोटी-सी एक सुन्दर दासी।" वह फिर महानामन् की ओर घूमा। महानामन् धीरे-धीरे वस्त्र के नीचे खड्ग खींच रहा था। देखकर आगन्तुक चौंका।

वृद्ध महानामन् ने शिष्टाचार से सिर झुकाया। उसने कहा—"नायक, तुम्हारे इस राजपरिच्छद का मैं अभिवादन करता हूं। तुम्हें मैं पहचानता नहीं, तुम कदाचित् मेरे मित्र के पुत्र, पौत्र अथवा नाती होगे। अब से 11 वर्ष पूर्व मैं भी एक सेना का नायक था। यही राजपरिच्छद, जो तुम पहने हो, मैं पूरे बयालीस साल तक पहन चुका हूं। उसकी मर्यादा मैं जानता हूं और मैं चाहता हूं कि तुम भी जानो। इसके लिए मुझे तुम्हारे प्रस्ताव का उत्तर इस खड्ग से देने की आवश्यकता हो गई, जो अब पुराना हो गया और इन हाथों का अभ्यास और शक्ति भी नष्ट हो गई है। परन्तु कोई हानि नहीं। आयुष्मान्! तुम खड्ग निकालो और तनिक कष्ट उठाकर आगे बढ़कर उधर मैदान में आ जाओ। यहां लड़की थककर सो गई है, ऐसा न हो, शस्त्रों की झनकार से वह जग जाए।"

तरुण मद्यपात्र हाथ में ले चुका था। अब वृद्ध महानामन् की यह अतर्कित वाणी सुन, उसने हाथ का मद्यपात्र फेंक खड्ग निकाल लिया और उछलकर आगे बढ़ा।

तरुण का दूसरा साथी कुछ प्रौढ़ था। उसने हाथ के संकेत से साथी को रोककर आगे बढ़कर बूढ़े से कहा—"आप यदि कभी वैशाली की राजसेना में नायक रह चुके हैं तो आपको नायक चन्द्रमणि का भी स्मरण होगा?"

"चन्द्रमणि! निस्सन्देह, वे मेरे परम सुहृद थे। नायक चन्द्रमणि क्या अभी हैं?" महानामन् ने दो कदम आगे बढ़कर कहा।

"हैं, यह तरुण उन्हीं का पुत्र है। आपका नाम क्या है भन्ते?"

महानामन् ने खड्ग कोष में रख लिया, कहा—"मेरा नाम महानामन् है। यदि यह आयुष्मान् मित्रवर चन्द्रमणि का पुत्र है तो अवश्य ही इसका नाम हर्षदेव है।" युवक ने धीरे-से अपना खड्ग वृद्ध के पैरों में रखकर कहा—"मैं हर्षदेव ही हूं, भन्ते, मैं आपका अभिवादन करता हूं।"

वृद्ध ने तरुण को छाती से लगाकर कहा—"अरे पुत्र, मैंने तो तुझे अपने घुटनों पर बैठाकर खिलाया है। आह, आज मैं बड़भागी सिद्ध हुआ। नायक के दर्शन हो सकेंगे तो?"

"अवश्य, पर अब वे हिल-डुल नहीं सकते। पक्षाघात से पीड़ित हैं। भन्ते, किन्तु आप मुझे क्षमा दीजिए।"

"इसकी कुछ चिन्ता न करो आयुष्मान्! तो, मैं कल प्रात:काल मित्र चन्द्रमणि से मिलने आऊंगा।"

"कल? नहीं-नहीं, अभी! मैं अच्छी तरह जानता हूं, आप थके हुए हैं और वह बालिका...कैसी लज्जा की बात है! भन्ते, मैंने गुरुतर अपराध...। वृद्ध ने हंसते-हंसते युवक को फिर छाती से लगाकर उसका क्षोभ दूर किया और कहा—"वह मेरी कन्या अम्बपाली है।"

"मैं समझ गया भन्ते, पितृकरण ने बहुत बार आपके विषय में चर्चा की है। चलिए अब घर! रात्रि आप यों राजपथ पर व्यतीत न करने पाएंगे।"

महानामन् ने और विरोध नहीं किया। बालिका को जगाकर दोनों तरुणों के साथ उन्होंने धीरे-धीरे नगर में प्रवेश किया।

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1 Comments

fiza Tanvi

27-Dec-2021 03:33 AM

Good

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